Thursday 7 May 2015

INVITATION
Saturday, 9 May 2015

Meaning of Life & Meaningful Life – Buen Vivir Dialogue Series
invites you for lectures on

Understanding Four Pursuits of Human Life – Dharm, Arth, Kaam, Moksh & Our times
Dr. Ravindra Kumar Pathak (Scholar of Sanskrit and Pali)
&

Human Life & Islam
Maulana Ataur Rahman Qasmi (Islamic Scholar)

Chair: Sh. Arif Mohammad Khan
Moderator: Sh. Vijay Pratap
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Tea – 10 am

Session I – 10:30 am to 1:00 pm
Understanding Four Pursuits of Human Life – Dharm, Arth, Kaam, Moksh & Our times

Lunch – 1:00 to 2:00 pm

Session II – 2:00 to 5:00 pm
Human Life & Islam

Tea – 5 pm

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Venue: Conference Room No. I, Main Building, India International Centre (IIC), Max Muller Road, New Delhi


Best regards,
Vijay Pratap & Dr. Ghazala Jamil & Ovais Sultan Khan                                                      


P.S.:  Please send a line of confirmation at   networkscommunication@gmail.com

Tuesday 5 May 2015

चार पुरुषार्थ और आज का समय

चार पुरुषार्थ और आज का समय

सभागत सज्जन, विद्वानगण,
सादर वंदन, अभिनन्दन।

आपके बीच इस विषय पर कुछ कहने-सुनने का जो अवसर मिला है इसके लिए आदरणीय श्री विजय प्रताप जी और श्री अनुपम भाई जी का आभारी हूं।

मैं जो आपके बीच रखने वाला हूं, उसमें शास्त्रीय विद्वता का पक्ष बिल्कुल नहीं है। मैंने इन विषयों को अपने लिए समझने की कोशिश में जो समझा और पाया, वही आपके सामने प्रस्तुत करूंगा। चूंकि इसमें मेरी अपनी नई बात के बराबर है अतः सहज ही शब्दों से लेकर अर्थ और भाव तक शास्त्र एवं परंपरा पर ही आधारित हंै।
चार पुरुषार्थ मतलब- धर्म, अर्थ, काम  और मोक्ष इन्हें पुरुषार्थ शब्द से तो जाना ही जाता है साथ ही इन्हें चतुर्वर्ग नाम से भी जाना जाता है। एक प्रसिद्ध पुस्तक है - चतुर्वर्ग चिंतामणि। धर्मशास्त्र से लेकर संस्कृत काव्य शास्त्र तक सबका लक्ष्य चतुर्वर्ग में सफलता प्राप्ति है।

मानव जीवन के ये चारों लक्ष्य सबके लिए हैं। इनमें सबका अधिकार है और सारे लोग देश, काल एवं अपनी पात्रता के भेद से भिन्न है अतः स्वाभाविक है कि सबके लिए एक ही प्रकार का धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष उपयुक्त नहीं होगा। इसमें भी विविधताएं हैं फिर भी उसमें संगति के सूत्र हैं।

चर्चा के पहले संक्षेप में इन चारों शब्दों के प्रचलित अर्थों पर ध्यान देने से सुविधा होगी।
धर्म - स्वभाव, कत्र्तव्य एवं व्यवस्था
अर्थ - आजीविका- संपत्ति और कर
काम - इच्छा, विशेषकर यौन इच्छा और उसकी तृप्ति
मोक्ष - अज्ञान, दुःख-अतृप्ति के बंधन से मुक्ति, संपूर्ण सीमाओं से मुक्ति।
पुरुषार्थ - ‘पुरुष $ अर्थमें अर्थ शब्द, शब्द और अर्थ वाला अर्थ है।

जब धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की अलग गणना करते हैं उस समय प्रयुक्त अर्थ शब्द एक पारिभाषिक परंपरागत अर्थ वाला है। उसका मतलब संपत्ति, संसाधन के साथ अर्थशास्त्र (भारतीय, विदेशी नहीं) वाला है।
इन अर्थों का कुछ लोगों ने विस्तार किया तो कुछ लोगांे ने संकोच। ऐसा देख मैं  भी अनेक बार दुविधाग्रस्त हुआ। धीरे-धीरे पता चला कि दुविधा का मूल कारण सुुविधा खोजना है। सुविधावादी या एकांगी दृष्टि से विचार करने पर तो समस्या होगी ही। भारतीय समाज विविधताआंे से भरा है। जिस किसी के लिए यह विविधता ही समस्या है उसके लिए मेरे पास कहने को कुछ नहीं है। जो विविधता को स्वीकार करते हैं उनके साथ कुछ कहने और बांटने को मेरे पास भी कुछ है।

यह जो चार का वर्गीकरण है, वह किसी एक ही धारा की बौद्धिक संपदा नहीं है। शब्दों की दृष्टि से भी धर्म और अर्थ लगभग सबको मान्य है। काम और मोक्ष की जगह निर्वाण, सुरति, महासुख आदि शब्दों का भी प्रयोग हुआ है।
अर्थ की दृष्टि से यदि विचार करें, वर्गीकरण एवं उसके औचित्य पर विचार करें तभी वर्तमान कालिक संदर्भ में इसके स्वरूप और सार्थकता पर भी विचार किया जा सकता है।

मुझे तो लगता है कि मानव ही नहीं जीव मात्र इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति में लगा है। काम के बिना सृष्टि ही नहीं और अर्थ के बिना जीवन नहीं। ये दोनों एक अकेले हो  नहीं पाते तो व्यवस्था तो बनानी ही पड़ती है और मानना भी पड़ता है। इस प्रकार व्यवस्था रूपी धर्म का अर्थ भी अन्य जीवों में लागू है। रही बात बंधन और मुक्ति की तो मनुष्य तो था अन्य जीव धर्म के बंधन में तो सभी हैं। इससे मुक्ति के बारे में कुछ दुविधाएं और उलझनें हैं। उन उलझनों से कैसे पार पाएं इसकी खोज में भारत के भी लोग लगे और प्रकृति के तरीकों को जानकर उससे शारीरिक/भौतिक तथा मानसिक स्तर पर भी मुक्ति पाई।

धर्म तथा अर्थ के संदर्भ में राज्य की अवधारणा का प्रवेश एक महत्वपूर्ण घटना है और राज्य को व्यक्तिगत या पारिवारिक संपत्ति माना जाना उससे बड़ी उलझन।

इसी प्रकार काम के क्षेत्र में काम दहन की घटना के बिंब का सीधा अर्थ है कि  अन्य जीवों की भांति गंध, ध्वनि और स्पर्श आदि से ही कामोत्तेजित होने की जगह मनुष्य में समरस, इच्छा, संकल्प आदि से कामोत्तेजना की आदत/संस्कार विकसित हुआ- इससे भारतीय साधक तो बहुत इठलाने लगे।

काम जानामि ते मूंल संकल्पात् किल जायसे।
नाहं संकल्पयिष्यामि तेन त्वं भविष्यसि।

हे काम! मैं तुम्हारा मूल जानता हूं। तुम संकल्प से पैदा होते हो। मैं संकल्प करूंगा तुम पैदा होगे।
इन चारों अनेक प्रकार की नई-नई खोज होती गई। और आज भी जारी है इसके कारण ही अर्थ बदलते गए।

चतुर्वर्गों की चर्चा अत्यंत रोचक, ज्ञानवर्धक साथ ही करुण भी है। आज प्रजननहीन रतिसुख, समलैंगिकता, उत्तराधिकार आदि की उलझनें हैं तो बलात्कार तथा अनेक प्रकार के यौन अपराधों की भी समस्या कम नहीं हो रही। राज्य की सत्ता केवल पृथ्वी तक नहीं रही, अंतरिक्ष तक पहुंच गई है। परिणामतः जंगल और उसकी स्वायत्तता को कोई मान ही नहीं रहा। ऐसा लगता है कि कहीं कहीं संगति के सूत्र छूट रहे हैं। एक कोशिश उन्हें ढूंढ़ने की होनी चाहिए मैंने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश की है। आशा है आपने भी की होगी। ये सू़त्र हाथ गए तो पता चलेगा कि धर्म का मतलब क्या है? क्या है दीर्घकालिक और उसमें से आज के लिए कितने अंश कितने प्रसांगिक हैं। स्वर्धम, न्यायधर्म के बीच संतुलन का सूत्र क्या था और आज क्या हो गया?

अर्थ और उसकी एक व्यवस्थित शास्त्र परंपरा भी भारत में रही है। इस बात को बहुत लोग जानते ही नहीं। अर्थशास्त्र एकोनोमिक्स का तर्जुमा बन कर रह गया है। ऐसी समझ खतरनाक है, आत्मघाती है। मैं मगध से हूं। हमारी बड़ी निंदा है, ‘मागधएक पुरानी गाली है। संस्कृत वाली मंडली में कोई अपने को मागध नहीं कहता। मगध में जाने से कर्म का नाश होता है। ऐसा अखिल भारतीय विरोध एक देश के लिए क्यों? ऐसे दो-चार उदाहरणों के अर्थ को समझने पर ही भारतीय बिंबों, पदावलियों उनके अर्थ तथा विस्तार को समझा जा सकता है।

कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र लिखा लेकिन वो अकेला शास्त्र नहीं है। हजारों साल तक प्रयोग कर नई प्रस्तुतियां देता रहा। बार-बार अपने को और समस्त भारत की चेतना को झकझोड़ता रहा इसलिए उसे शैतानी, उत्पाती आदि पदवियां दी गईं।

मैंने उसी प्रयोगिक परंपरा से सीखने की कोशिश की है। मगध दूसरे क्षेत्रों के बगैर बेकार और अधूरा रहेगा। दिल्ली में राजधानी में अनेक लोगों से बात करने का अवसर मिलेगा इसकी खुशी हो रही है।
काम के बाह्य पक्ष का नाम मैंने लिया लेकिन भारत के लोगों ने तो कुछ सैकिडों वाला नहीं; घंटो, दिनों वाले काम/सुरति का रहस्य खोजा और मजा लिया। इसमें बुराई क्या है? इससे किसका बुरा होता है? उसे मोक्ष का प्रथम चरण कहा तो अनेक विवाद हो गए।

मेरी समझ से हमें इन चारों पुरुषार्थों के स्वरूप तथा उनके अंतरसंबधों को समझना चाहिए और सत्य की भारतीय संस्कृति की विविधताओं में विकसित भिन्न-भिन्न आचार शैलियों तथा उसकी सार्थकता को केवल समझना चाहिए बल्कि अमल भी करना चाहिए।

इसके लिए विवाह, प्रजनन, जाति, उत्तराधिकार आदि के क्षेत्रीय अंतरों को ध्यान में रखना जरूरी है।
केवल विविधताओं से समाज नहीं बनता चलता है। आज राष्ट्रीय एकता की चिंता तो अनके लोग करते हैं लेकिन समाज की एकता बना कर रखने वाली व्यवस्थाओं को महत्व नहीं देते।

तीर्थ व्यवस्था उनमें से एक है। एक तीर्थ व्यवस्था धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के क्षेत्र में इतना निर्णायक प्रभाव डालती है कि सारे क्षेत्रीय अंतरों, युद्धों, प्रतिस्पर्धाओं के बाद भी वर्ण व्यवस्था के शीर्ष अहंकारी कुलीन ब्राह्मणों एवं राजाआंे तक को भी दूसरों के सामने झुकने, उनकी वंदना करने और उनसे आर्शीवाद प्राप्त करने पर विवश करती है। यह तो बस एक उदाहरण मात्र है।

आज के समय में भी ये चारों वर्गीकरण सार्थक हैं। जरूरत है उन्हें समयानुरूप परिवर्तनों से मिला कर समझने की। जो बातें नहीं बदलीं, जैसे-आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन की प्रवृति, जिज्ञासा तथा संतती की इच्छा, उन्हें मानना होगा। जो बदल गए, जैसे रोजगार, स्थापन, विस्थापन, रोजगार आधारित जातीय व्यवस्था, राज्य सत्ता में हस्तक्षेप की प्रक्रिया, प्रजनन संबंधी गांठें। जिम्मेदारियों उनके परिप्रेक्ष्य में ज्ञानी-गुणी लोगों को नई व्यवस्था प्रस्तुत करनी चाहिए।

मगध के लोगों ने पहले भी ऐसा काम नहीं किया। यह काम महाराष्ट्र और कश्मीर के लोग सदियों से कर रहे हैं। वे सूत्र हम से लें और शास्त्र लिखें तो दोआबा के लोग उसे सिर आंखों पर उठा लेंगे।

दक्षिण में थोड़ा अंतर है। मैंने केवल सुना है। उस क्षेत्र के लिए उसकी संहिता बनाना शायद कर्नाटक या केरल के जिम्मे होगा, मुझे ठीक से पता नहीं है।

- रवीन्द्र कुमार पाठक